“ एक मुट्ठी आसमान “
चाहती हूँ एक मुट्ठी आसमान।
सुनता है तू आसमान?
तेरी ऊँचाई छूना चाहती हूँ-
अपनी साधना को साधकर ,
अपनी भावना को माँजकर ,
अपनी कामना को जीतकर!
तेरी शून्यता में समायी है
ब्रह्मांड की सम्पूर्णता,
तेरी ऊँचाई से सजती है
धरती की सुन्दरता ।
आसमान,मैं तेरा हिस्सा
बनना चाहती हूँ!
अपनी सीमाओं में बँधकर,
अपनी दिव्यताओं को निखारकर, अपने सीने में बसते सूरज की गरमी को,चाँद की चाँदनी को,
सितारों की झिलमिलाहटों को,
काले-काले मेघों के अम्बारों को,
नक्षत्रों के बन्घनों को ,
अपनी शून्यता में छिपाये रखता तू
सृष्टि-प्रलय के क्रम को ।
आसमान,मैं इस क्रम को
देखना चाहती हूँ
अपनी मर्यादाओं को पालकर ।
एक मुट्ठी आसमान चाहती हूँ,
कल्पनाओं को संभावनाओं में ढालकर!
-डॉ दक्षा जोशी "निर्झरा"
गुजरात ।