
मैं धरती हूं ,
दृढ़ता धारण करती हूं ,
इसलिए सहयोग तुझे देती हूं ।
ज़ुल्म करो मुझ पर कितना भी ,
सहन करती रहती हूं।।
हां मैं धरती हूं ।
जब चलाते हल छाती पर मेरे ,
मैं प्रफुल्लित होती हूं ।
जल की शीतल बूंदों से मिलकर ,
बीज अंकुरित कर देती हूं ।
स्नेह हवा सूरज का मिलता ,
हरियाली तब छाती है ।
मेरा मन प्रमुदित होता ।।
हां मैं धरती हूं ।
पर तुम्हारा मन चंचल है ,
अच्छा खाना , पहनना , घूमना ,
सभी को अच्छा लगता है ।
चौराहे बहुत हैं , जीवन में,
जिनमें भटका करते हो ।
सुख पाने की इच्छा में ,
संयम नहीं रखते हो ।
जीभ पर नहीं नियंत्रण तेरा ,
पशु पक्षियों का हनन कर ,
हाड़ मांस खाते हो ,
इनका भी तो जीवन है ।
जीने का अधिकार इन्हें दो ।
फल फूल सब्जी इतनी देती ,
कम नहीं ये पड़ते है ,
तब क्यों अत्याचार हो करते ।।
हां मैं धरती हूं।
जन्म दिया तुझको मैने ,
स्नेह जगत फैलाने को ,
नफरत के बीज बो कर ,
आपस में भिड़ जाते हो ,
रक्त बहाते आपस में तुम ,
गिरता मेरी छाती पर है ,
तब मैं तड़फा करती हूं ,
मेरी तड़फन नहीं है दिखती तुझको ,
मुझे प्रदूषित कर देते हो ।।
हां मैं धरती हूं ।
मैं बिगड़ गई संभल न सकोगे
मां का दर्जा मुझे दिया है
स्नेह अमल करके देखो ,
जड़ चेतन से स्नेह करोगे ,
आनंद का अनुभव करोगे ,
इतनी बात मेरी रख लो ,
हां मैं धरती हूं ।।
आदित्य कुमार श्रीवास्तव