" मुसाफ़िर है हम तो"
हम कैसे मुसाफि़र थे
सफ़र ढूंढते रहे।
रातों में ज़िंदगी के
सहर ढूंढते रहे।
हम ख़ुद के वास्ते ही
कहर घूमते रहे
क्यों इश्क़ के ग़ुलाम हुए
हम तमाम उम्र,
पत्थर में मोहब्बत का
असर ढूंढते रहे।
हम बाग़बान ए दिल से भी
देखे नहीं गए,
जो हमको देख पाती
नज़र ढूंढते रहे।।
दुनिया ए हुस्न ओ इश्ककी गफ़लत में यूं पढ़े,
फ़िर खु़द के वास्ते ही
ज़हर ढूंढते रहे।।
रिश्तों के लेन-देन में
हो करके ख्वांर हम,
रिश्तो में ज़िंदगी के
महर ढूंढते रहे।
यूं नादान से
सफ़र की ग़ज़ल हुई,
गाई तमाम उम्र
बहर ढूंढते रहे।
- डॉ.दक्षा जोशी " निर्झरा"
गुजरात।